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होता॑ यक्षत् सु॒रेत॑सं॒ त्वष्टा॑रं पुष्टि॒वर्द्ध॑नꣳ रू॒पाणि॒ बिभ्र॑तं॒ पृथ॒क् पुष्टि॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। द्वि॒पदं॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यमु॒क्षाणं॒ गां न वयो॒ दध॒द् वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒रेत॑स॒मिति॑ सु॒ऽरेत॑सम्। त्वष्टा॑रम्। पु॒ष्टि॒वर्ध॑न॒मिति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑नम्। रू॒पाणि॑। बिभ्र॑तम्। पृथ॑क्। पुष्टि॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। द्वि॒पद॒मिति॑ द्वि॒ऽपद॑म्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। उ॒क्षाण॑म्। गाम्। न। वयः॑। दध॑त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (होतः) दान देनेहारे पुरुष ! जैसे (होता) शुभ गुणों का ग्रहीता पुरुष (सुरेतसम्) सुन्दर पराक्रमवाले (त्वष्टारम्) प्रकाशमान (पुष्टिवर्धनम्) जो पुष्टि से बढ़ाता उस (रूपाणि) सुन्दर रूपों को (पृथक्) अलग-अलग (बिभ्रतम्) धारण करनेहारे (वयोधसम्) बड़ी अवस्थावाले (पुष्टिम्) पुष्टियुक्त (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य को (द्विपदम्) दो पगवाले मनुष्यादि (छन्दः) स्वतन्त्रता (इन्द्रियम्) श्रोत्रादि इन्द्रिय (उक्षाणम्) वीर्य सींचने में समर्थ (गाम्) जवान बैल के (न) समान (वयः) अवस्था को (दधत्) धारण करता हुआ (आज्यस्य) विज्ञान के सम्बन्धी पदार्थ का (यक्षत्) होम करे तथा (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे (यज) होम कीजिये ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे बैल गौओं को गाभिन करके पशुओं को बढ़ाता है, वैसे गृहस्थ लोग स्त्रियों को गर्भवती कर प्रजा को बढ़ावें। जो सन्तानों की चाहना करें तो शरीरादि की पुष्टि अवश्य करनी चाहिए। जैसे सूर्य रूप को जतानेवाला है, वैसे विद्वान् पुरुष विद्या और अच्छी शिक्षा का प्रकाश करनेवाला होता है ॥३२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(होता) (यक्षत्) (सुरेतसम्) शोभनं रेतो वीर्यं यस्य तम् (त्वष्टारम्) देदीप्यमानम् (पुष्टिवर्धनम्) यः पुष्ट्या वर्धयति तम् (रूपाणि) (बिभ्रतम्) धरन्तम् (पृथक्) (पुष्टिम्) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (वयोधसम्) (द्विपदम्) द्वौ पादौ यस्मिन् तत् (छन्दः) (इन्द्रियम्) (उक्षाणम्) वीर्यसेचनसमर्थम् (गाम्) युवावस्थास्थं वृषभम् (न) इव (वयः) (दधत्) (वेतु) (आज्यस्य) (होतः) (यज) ॥३२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे होतस्त्वं यथा होता सुरेतसं त्वष्टारं पुष्टिवर्धनं रूपाणि पृथक् बिभ्रतं वयोधसं पुष्टिमिन्द्रं द्विपदं छन्द इन्द्रियमुक्षाणं गां न वयो दधत् सन्नाज्यस्य यक्षद् वेतु तथा यज ॥३२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यथा वृषभो गां गर्भिणीः कृत्वा पशून् वर्धयति, तथा गृहस्थाः स्त्रीर्गर्भवतीः कृत्वा प्रजा वर्द्धयेयुः। यदि सन्तानेच्छा स्यात् तर्हि पुष्टिः सम्पादनीया। यथा सूर्यो रूपज्ञापकोऽस्ति तथा विद्वान् विद्यासुशिक्षे प्रकाशयति ॥३२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो ! जसा बैल, गायी द्वारे प्रजा वाढवितो तसे गृहस्थांनी स्रियांद्वारे संताने वाढवावी. ज्यांना संतानांची इच्छा असेल त्यांनी आपले शरीर पुष्ट करावे. जसा सूर्य रूपाचे दर्शन घडवितो तसे विद्वान पुरुष विद्या व चांगले शिक्षण यांचे प्रकटीकरण करतात.